Sunday, September 23, 2007

शायद इस बार तुझे मेरा घर मिल जाये

क्या चाहत है मुझे सचमुच मेरे साथ की
क्या राहत है मुझे सचमुच मेरे आप की

क्यों नहीं रहम खाता खुदा अपनी खुदाई पर
क्यों नहीं सहम जाता खुदा अब जुदाई पर

कभी तो खैर मैं भी रूक जाऊँगा
कभी तो खैर मैं भी थम जाऊँगा

शायद तभी तुझे भी सुकून आये
शायद तब तू भी खुदा से इन्सान बन जाये

चल अब मैं अपने घर के लिए चलता हूँ
शायद इस बार तुझे मेरा घर मिल जाये

No comments:

Post a Comment